रचनाएं हमारी आवाज़ : सच लिखने और बोलने का समय – एस आर हरनोट
प्रश्न : संकटों के दौर में यह कैसे तय होना चाहिए कि ‘लेखक का सच दूसरों से अधिक प्रामाणिक होता है?’
एस.आर. हरनोट : पहली बात तो यह है कि संकटकालीन समय में लेखक बोलता कितना है? यदि उसमें यह क्षमता है तो उसका सच उसकी आमजन के प्रति संवेदना और पक्षधरता से ही प्रमाणित हो सकता है। हर गलत और झूठ का मौखिक और लिखित विरोध ही इसके प्रमाण हो सकते हैं।
प्रश्न : क्या इस समय रचनाकारों का भी यथार्थ कई तरह से अतियथार्थ हो चुका है और इस दौर ने ज्यादातर साहित्यकारों की प्रतिरोध की इच्छा और शक्ति को लगभग निश्शेष कर दिया है?
एस.आर. हरनोट : हर अंधेरे में रोशनी की एक आस हमेशा जीवित रही है। जब हम यह देखते हैं कि भयावह रात है, अंधेरा है और सूरज निकलने में कई पहर बाकी हैं तो अचानक कहीं से एक जुगनू उस विकट अंधेरे से लड़ता और उसे चुनौती देता हुआ आ जाता है। यही कुछ कवि-साहित्यकारों के लिए भी कहा जा सकता है। इतिहास को देखें तो हर स्वार्थी और वर्चस्ववादी सत्ताओं ने पहला काम प्रतिरोध की इच्छा और शक्ति को ही कुचलने का किया है, बावजूद उसके वह फीनिक्स की तरह जीवित होता रहा है। एक बात यह भी सत्य है कि प्रतिरोध की इच्छा और शक्ति आपके भीतर से उपजती है और उसमें यदि दृढ़ता है, सच्चाई है, निःस्वार्थता है तो उसे दुनिया की कोई ताकत निशेश नहीं कर सकती।
प्रश्न : आजकल के खराब दिनो में मीडिया सामान्य नागरिकों के जीवन की सचाई के बड़े हिस्से को छिपाकर विकृति, अप्रामाणिकता और झूठ के साथ क्यों हाशिये पर डाल रहा है? वह मानवीय दिलासा, हिम्मत, उम्मीद, धीरज बंधाने के बजाय लगातार भेदभाव, भय, नफ़रत, झूठ और अफ़वाहें क्यों फैला रहा है?
एस.आर. हरनोट : इसीलिए इसे ‘गोदी मीडिया’ कहा जाने लगा है। वह आमजन का नहीं, सत्ताओं का प्रवक्ता बन बैठा है। मीडिया अब जनता का हिस्सा नहीं, बाजार का है। सत्ता का हिस्सा है। भेदभाव, भय, नफरत, झूठ और अफवाहें उसकी टीआरपी को बढ़ाने के सशक्त हथियार हैं, जैसे अब ये राजनीति के हैं।
प्रश्न : क्या साहित्य का सच हमेशा आत्मसंशयग्रस्त होता है?
एस.आर. हरनोट : मैं यह नहीं मानता। यह तब होता है, जब आप अपने लिए कुछ न कुछ बचाए रखना चाहते हैं। यह बचाना ही आत्मसंशय पैदा करता है।
प्रश्न : दुनिया को नरक बनाने के लिए दूसरों भर को ज़िम्मेदार-जवाबदेह ठहराने और अपने को पाक-साफ़ बख़्श देने वाला व्यक्ति क्या लेखक हो सकता है?
एस.आर. हरनोट : नहीं, कदापि नहीं। ऐसों के लिए ‘दलाल’ और ‘नेता’ शब्द सबसे उपयुक्त है। वैसे भी वर्तमान समय उन्हीं का है। आज के दौर में शायद ‘नेता’ से बड़ी कोई गाली नहीं है।
प्रश्न : निर्भीक आलोचना की दृष्टि से सब कुछ आलोच्य है, यह साहित्य के जनतन्त्र की बुनियादी मान्यता होती है, ऐसे में फेसबुक-सोशल मीडिया पर यश-लिप्सा के वशीभूत झटपटिया मूल्यांकनों की बाढ़ क्या समकालीन श्रेष्ठ साहित्य के सृजन को अस्थिर और कामचलाऊ होने के लिए प्रेरित नहीं कर रही है?
एस.आर. हरनोट : मुझे यह मानने में संकोच होता है कि गंभीर आलोचना की दृष्टि से सबकुछ आलोच्य है…अगर ऐसा है तो हमारे पास अच्छा तो कुछ भी शेष नहीं रह जाता है। यहां मैं आलोचना के साथ सकारात्मक शब्द जोड़ना चाहूंगा। इसलिए साहित्य के जनतंत्र की बुनियादी मान्यता में सकारात्मक आलोचना की ही भूमिका रहनी चाहिए। जहां तक फेस बुक सोशल मीडिया का प्रश्न है, इसके अच्छे बुरे दोनों पक्ष हैं और उन्हें हम किस तरह या किस दृष्टिकोण से इस्तेमाल करते हैं, यह देखना जरूरी है।
आपने महसूस किया होगा कि लॉक डाउन में जब हम घोर अवसाद और संवादहीनता की स्थिति में आ गए थे और कोई विकल्प सामने नहीं था तो इसी मीडिया ने ऑन लाइन और लाइव संवाद स्थापित किया है। हर सूचना और एक दूसरे के पास पहुंच इसके सकारात्मक पक्ष हैं। बाकी आप से सहमत हूं कि फेसबुक-सोशल मीडिया पर यश-लिप्सा के वशीभूत झटपटिया मूल्यांकनों की बाढ़ जरूर ही समकालीन श्रेष्ठ साहित्य के सृजन को अस्थिर और कामचलाऊ होने के लिए प्रेरित कर रही है।
यहां यह भी जोड़ दूं कि कुंठित लोगों के लिए यह मंच ‘राजनीतिक अखाड़ा’ जैसा भी हो चुका है। रचना की गुणवत्ता समाप्त है। ई-प्रमाणपत्रों और ‘श्री श्री 10008’ पुरस्कारों ने जैसे गंभीर साहित्य की सोच, परख को ही समाप्त कर दिया है।
प्रश्न : क्या इस दौर में साहित्यकार सृजन के साहस से, धर्म अपने अध्यात्म से, तंत्र लगातार लोक से, पुलिस सुरक्षा के और राज्य नागरिकता के बोध से, आम नागरिक सच के प्रति व्यक्तिगत आग्रह से उदासीन होता जा रहा है?
एस.आर. हरनोट : यह इस दौर की सच में बड़ी विडंबना है। इसके मूल में यह भी जोड़ा जा सकता है कि मनुष्य अब तो मनुष्यता के बोध से ही उदासीनता के साथ विमुख होता जा रहा है। जब इंसानियत का क्षरण होगा तो ऐसी परिस्थितियां पैदा होंगी ही।
प्रश्न : निजता की महामारी, तटस्थता, उदासीनता, संवेदनहीता हमें और हमारी राजनैतिक-आर्थिक-नैतिक-साहित्यिक व्यवस्थाओं को जिस ओर ले जा रही है, क्या ऐसे में साहित्यकारों को निर्लिप्त रहना चाहिए अथवा भारतीय साहित्य से जनजीवन की उम्मीदें बचाए रखने के लिए कोई सार्थक-संभव पहल करनी चाहिए?
एस.आर. हरनोट : लेखन का मूल उद्देश्य ही जनजीवन की उम्मीदें बचाए रखना होता है। संकटों की विकट घड़ियों में यह भूमिका और भी गंभीर और जिम्मेदार हो जानी आवश्यक है।
वास्तव में साहित्यकारों की भूमिका यहीं से शुरू होती है, जो हर संभावना और उम्मीद को बचाए रखने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
प्रश्न : कोरोना महामारी के दौर में आप किस तरह के अनुभवों से गुजरे, जिसे, देश के आम नागरिकों को भी अवगत कराना आप को गैरजरूरी नहीं लगना चाहिए?
एस.आर. हरनोट : यह मेरे जीवन का अत्यंत कटु और भयावह समय था। अनुभव भी। जब महामारी को ताली थाली बजाकर, महामृत्यन्जय मंत्रों से भगाने के सत्ताओं की तरफ से प्रपंच रचे गए तो जैसे हम इस उत्तराधुनिक समय में किसी अंधकूप में धकेल दिए गए।
मैंने एक दैनिक के लिए अपने अनुभवों पर तीन किश्तों में एक सीरीज भी लिखी थी, जिसका शीर्षक था- ‘यह समय रचनात्मक नहीं है, फिर भी हमें रचनात्मक रहना है।’ यह रचनात्मकता मुझे गांव में भरपूर देखने को मिली, जबकि शहरों में एक अजीब तरह की शून्यता, जहां केवल ‘अवसर तलाशती’ सरकारें थीं और ‘कोरोना व्यापार में संलिप्त मीडिया।’
मेरे लिए यह समय मृत्यु-भय जैसा भी था। साथ ही इंसानियत के, राजनीति के क्षरण का भी। एक अति दुखद पहलू यह था कि सरकारें और उसका प्रशासन बिल्कुल कोमा में जाता दिखा। उसके मूलभूत विकास की पोल केवल चंद दिनों में खुल गई। सोच और योजनाएं ध्वस्त हो गईं। चंद सांसों के लिए लोग तरसते रहे। स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए लोग दर-दर भागते रहे। कोरोना से कम, लोगों को डरा कर ज्यादा मार दिया गया। लोगों को अपने परिजनों की लाशें नसीब न हुईं। जब गंगा में लाशें तैरती मिलीं तो लगा, यह देश किसी सुझबूझ वालों के पास नहीं, जल्लादों के हाथ में चला गया है। साथ ही, वह अपनी जड़ों को तलाशने का भी समय था। मैंने जहां मनुष्य को इस समय में बिल्कुल असहाय देखा, वहां प्रकृति को बहुत हंसते खेलते भी, उसे अपने वास्तविक स्वरूप में भी।
बहुत से लेखकों ने इस समय को अपनी कविताओं और कहानियों, उपन्यासों में गंभीरता से दर्ज भी किया है। इसका एक उदाहरण अरुण होता द्वारा संपादित 42 लेखकों की कविताओं के संकलन का भी दिया जा सकता है, जो ‘तिमिर में ज्योति जैसे’ शीर्षक से आया है। वास्तव में ये रचनाएं हम सभी के अनुभव और आवाजें हैं। (संकलन में कुमार अंबुज के शब्द – ‘जब एक गरीब आदमी सोता है, थका-भूखा और निराश्रित, तो अकस्मात मृत्यु उसका परवाह करती है, कई बार तो इस तरह कि दूसरों की नींद कहीं टूट न जाए)
प्रश्न : क्या आज के नगर-प्रेम और प्रलोभन, बेतहाशा विकास आदि पर कवि-साहित्यकारों को भी पुनर्विचार नहीं करना चाहिए?
एस.आर. हरनोट : साहित्य की यह जरूरत हमेशा से रही है। ऐसे में उसका दायित्व और बढ़ जाता है। कवि-साहित्यकारों ने बहुत बढ़िया रचनाएं और कृतियां भी समय-समय पर इन विषयों पर समाज को दी हैं।
प्रश्न : क्या आज देश के चिन्तकों, वैज्ञानिकों, लेखकों-कलाकारों के पास अधिक मानवीय, अधिक समावेशी, अधिक समतामूलक, अधिक न्याय सम्मत विकल्प सोचने और टेकनॉलजी को आत्मघातक और मानवसंहारक होने से बचाने की कोशिश करने की कल्पना, संवेदना, पहल और साहस बचा है?
एस.आर. हरनोट : ऐसे लोग बहुत ज्यादा नहीं है। जो हैं, वे इस दिशा में लगातार काम भी कर रहे हैं। बोल भी रहे हैं। पूछ भी रहे हैं। हालांकि जो बोल और लिख रहे हैं, उनकी प्रताड़नाएं और सुनियोजित हत्याएं तक की जाने लगी हैं, उनके लिए परिस्थितियां अनुकूल नहीं हैं। वे अर्बन नक्सल से नवाजे जा रहे हैं, चिन्हित कर लिए गए हैं, परंतु जिन्हें सच बोलना है, लिखना है, उन्हें दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकती।